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हमारी संस्थापिका - हमारी "बड़ी दीदी" - स्व. गीता बजाज   

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गीता बजाज -  एक समर्पित जीवन

 

राजस्थान के सीकर जिले में नीम का थाना कस्बे के श्री माधोलाल चौधरी की पुत्री गीता बजाज का जन्म महाशिवरात्रि  के दिन 15 मार्च 1919 को खण्डवा (मध्यप्रदेश)  में हुआ.  दो भाइयों और आठ बहनों के परिवार में यह चौथी सन्तान थी.  नीम का थाना के स्कूल में तीसरी कक्षा तक पहुंचते ही 15 वर्ष की छोटी सी उम्र में गीता के हाथ पीले कर दिए गए.  पति थे सीकर जिले के काशी  का बास नामक ढाणीनुमा गांव के श्री गिरधारी लाल जी बजाज- जाने माने स्वाधीनता सेनानी, गांधी जी के मुंह बोले पांचवे बेटे जमनालाल जी बजाज के भतीजे और बींजराज जी बजाज के सबसे बड़े  बेटे.  

 

विवाह के बाद पति के साथ वर्धा गई, जहां बापू का आशीर्वाद और सानिध्य मिला पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था.  कोई दो ढाई वर्ष बाद ही पति  नहीं रहे, और 17 वर्ष की अल्पायु में ही गीता बजाज को क्रूर  नियति ने वैधव्य की ज्वाला में झोंक दिया.  उस दारुण घड़ी में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का संवेदना संदेश  गीता जी के जीवन में एक नई रोशनी लेकर आया.  बापू के शब्दों  ने  उन्हें  न केवल जीने की लालसा दी, बल्कि जीवन में देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा शक्ति और उत्कृष्ट  इच्छा दी .  गांधीजी ने लिखा था-

‘‘चि. गीता, जैसा तुम्हारा नाम है, वैसे  ही तुमको  रहना है.  विधवापन और सधवापन मनमानी  चीज है.  मरना-जीना किसी के हाथ में नही है, इसलिए शांत रहो, और अपने को सेवार्पण करो. ’’

 

गीता जी ने वैसा ही किया.  पति बिछोह के अपने रंज और गम को भूल उन्होने अथक मेहनत कर अच्छी शिक्षा प्राप्त की.  एक जवान अनपढ़ विधवा के मार्ग में जो विपदाएं, कठिनाइयां और मुसीबतें आ सकती थी, वे आई, पर सभी का सामना करते हुए गीता बजाज अपना रास्ता स्वयं बनाती चली गई.  पति को खोने के तीन माह बाद उन्होने उनकी निशानी एक पुत्री को जन्म दिया.  पुत्री जन्म के बाद उन्होंने  पढ़ाई शुरु कर दी पर उनका शैक्षिक जीवन टूटता-जुड़ता रहा.  बडे़ भाई स्व. सिद्ध गोपाल चौधरी संबल बने, निराशा  के घोर क्षणों में उन्होने बहन को सहारा दिया, उसका मनोबल नही टूटने दिया.  वनस्थली विद्यापीठ से मिडिल पास किया.  बनारस से मैट्रिक और पिलानी से इण्टरमीडियट किया.  1942 में काशी  हिन्दू विश्वविद्यालय  में बी.ए. में प्रवेश लिया ही था कि देश में आजादी के दीवानों का ‘‘करो या मरो’’ का नारा गूंजा.  डा. गेरोला के विद्यार्थियों का  आह्वान ‘‘स्वतंत्रता यज्ञ में कूद पड़ो’’ सुन कर गीता जी भी पीछे न रह  सकीं  और उस यज्ञ में अपने हिस्से की आहूति देने के लिए जूझ पडी.  परिणाम वही हुआ जो होना था, बनारस विश्वविद्यालय  से निष्कासन.

 

गीताजी के जीवन मे राजनैतिक पृष्ठभूमि थी ही- पीहर की ओर से पूज्य पिता श्री की उन्मुक्त विचारधारा और बापू के स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित उनकी कार्यवृत्ति और अपने दोनों चाचा, राजस्थान के ख्याति प्राप्त कर्मठ कांग्रेसी नेता और महात्मा गांधी के सहयोगी स्व. रामनारायण चौधरी और स्वाधीनता सेनानी कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी के देश  प्रेम से आप्लावित साहसिक क्रिया-कलाप और दूसरी ओर ससुराल पक्ष से जुझारु व्यक्तित्व के धनी स्व. जमनालालजी बजाज.  इन सब के साथ बापू की रचनात्मक कार्यशैली  से घनिष्ट संयुक्ति.  साथ ही साबरमति आश्रम, वनस्थली विद्यापीठ, हटुंडी और नारेली आश्रम और जयपुर राज्य प्रजामंडल के प्रभाव ने स्वतंत्रता संग्राम में तन और मन से कूद पडने की प्रेरणा दी.  परिणाम की चिंता न करते हुए सन् 1942 के ‘‘भारत छोडो आन्दोलन’’ में अंग्रेजी दासता से देश  मुक्ति का बीड़ा उठाए स्व. बी.वी. केस्कर, डा. राधेश्याम, स्व. सादिक अली, श्रीमती अरुणा आसफ अली और अन्य हस्तियों का साथ पा वह आजादी के संघर्ष में सक्रिय हो गई.  महिला संगठन का कार्य किया, छिपकर रहते हुए बम बनाए, वेश  और स्वरुप बदलकर (अधिकतर सिर पर साफा बांधे पुरुष वेश  में) यह बहादुर और निर्भीक महिला आजादी के संग्राम में जुटी रही.  आखिरकार दिल्ली में पकड़ी गई.  सजा मिली, लाहौर जेल की काल कोठरी में बंद कर दी गई, बाल पकड़ कर घसीटी गई.  अंधेरी और बिच्छु जैसे विषैले कीडे-मकोड़ों से भरी नितांत स्वास्थ्यघातक छोटी सी कोठरी में जहां पूरे पांव भी न फैल सके, उसमें  उन्हें डाल दिया गया.

 

जेल से छूटी तो तपेदिक और आंत रोग ने शरीर को घर बना लिया.  इसी बीच देश स्वतंत्र हो गया.  वर्ष 1948 में फिर बनारस विश्वविद्यालय  से ही बी.ए. पास किया.

 

भुवाली और जयपुर सैनेटोरियम में भर्ती रही.  जयुपर में ही आंतों का ऑपरेशन हुआ.  शरीर जर्जर हो गया था, पर आत्मा और भावना सबल थी.  डॉक्टरी सलाह पर जयपुर की बाहरी बस्ती, मोती डूंगरी, क्षेत्र में रहीं .  निर्धन, पिछड़े हुए, संस्कारहीन,  शिक्षा से अछूते, मिट्टी में लोटते-खेलते बच्चों ने उन्हें आकर्षित किया.  बापू के शब्द ‘‘अपने नाम के अनुरुप कार्य करो’’, वो  सदा तनमन में अंकित थे ही - बस जहां एक कमरे में वो रहती थीं, उसकी खुली छत पर 1952 की गुरुपूर्णिमा के शुभ दिन 7 जुलाई को बालकों के लिए बाल मन्दिर की स्थापना कर दी.  अन्य स्वाधीनता सेनानियों की तरह देश की आजादी के साथ गीता बजाज को  एक मंजिल तो मिल गई थी, पर उनका   सफ़र जारी रहा, अपनी दूसरी मंजिल की तरफ, बाल मन्दिर के माध्यम से देश और समाज की सेवा.  

 

सेवा के इस मन्दिर का संचालन उन्होने गांधीजी के आदर्शों  और सिद्धान्तो के अनुरुप किया.  शिक्षा का माध्यम भी राष्ट्र भाषा हिन्दी को रखा.  देश और समाज की सेवा के बदले में उन्होने कभी कुछ नही चाहा.  अपने को प्रचार-प्रसार की चमक से दूर रखकर गीताजी निःस्वार्थ भाव से सेवा करती रही. सेवा की इस लहर में उन्होने अपने को पूरी तरह डुबो दिया था.  उम्र के साथ - साथ रोग से कमजोर शरीर और ऊपर से कुछ अति निकटजनों के आकस्मिक निधन का सदमा तो वह किसी तरह सह गई पर नियति का क्रूर खेल बाल -मन्दिर परिसर में बड़ी लगन और मेहनत से जिस सभागार का निर्माण करवाया था, वह किसी कर्मचारी की नादानी से आग की भेंट हो गया.  (इस सभागार का  उद्घाटन   राष्ट्रपति, महामहिम  डॉ. शंकर दयाल जी शर्मा करने वाले थे, पर कुछ ही दिन पहले उनका यह कार्यक्रम आगे के लिए स्थगित हो गया था. ) गीता जी ने इस झटके को भी बड़े धैर्य और वीरता से सहन किया.  

 

12 जुलाई 1995 को गुरुपूर्णिमा के दिन बाल मन्दिर के अपने सभी साथी-संगियों और परिवारजनों से हँसती बोलती रही, रात देर तक काम किया, पर अगले ही दिन सवेरे उनके मस्तिष्क की नस फट गई.  ऐसे में भी अस्पताल ले जाते समय उस वीर महिला ने अपने घर की सीढ़ी के पास बैठकर वहीं से कुछ माटी उठाकर माथे से लगाई.  होश  में नही थी, फिर भी बुदबुदाई, ‘‘ठहरो, इसे तो माथे पर लगा लेने दो.”  

अपनी जननी भारत माँ को और बाल मंदिर परिसर की मिटटी को गीता बजाज का यह अंतिम प्रणाम था....

 

सारी उम्र जिन्दगी से जुझती हुई अपने लक्ष्यों की और बढ़ती रही और जिसके लिए उनके ससुर बींजराज बजाज उन्हे ‘‘ बिना पगड़ी का मोटियार’’ कहा करते थे, वह 3 अगस्त 1995 के सवेरे तक- 22 दिन मृत्यु से भी लोहा लेती रही.  अंततः मृत्यु जीत गई, पर उनका लगाया हुआ यह पौधा “बाल मन्दिर संस्थान” ‘ एक अकेली महिला का चमत्कार’, उस समाजसेवी और देशप्रेमी गीता बजाज को सदा अमर रखेगा.  अब तो बस-

 

‘‘हर अर्क पर तेरी तसवीर नजर आती है,

 आज यह किसने किताबों को खुला छोड़ दिया....’

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