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हमारी संस्थापिका - गीता बजाज -  हमारी "बड़ी दीदी"

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बाल मन्दिर की कहानी : पूज्य गीता दीदी की ज़ुबानी

“बाल किरण”  1987-88 में पूज्य गीता जी की मंत्री के रूप में प्रकाशित रिर्पोट के कुछ अंश

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शिक्षा व्यक्ति एवं समाज के विकास का साधन हैं. शिक्षा अर्थपूर्ण नैतिक क्रिया हैं. अतः यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि यह उद्देश्यहीन हैं. “उद्देश्य पूर्व योजित लक्ष्य है जो किसी क्रिया को संचालित करता हैं.” इस प्रकार शिक्षा औपचारिक रूप से शैक्षणिक सार्वजनिक संस्थानों द्वारा प्रदान की जाती है. मानव के उद्देश्य प्रधान तथा क्रियाशील प्राणी होने के नाते उसकी क्रिया निरूद्देश्य नहीं होती. अतः प्रत्येक संस्था की समस्त क्रियाओं की पृष्ठभूमि में आदर्श लक्ष्य, उद्देश्य होता हैं और वह उसे क्रिया करने हेतु प्रेरित करता है.

 

निर्धारित उद्देश्य और निर्दिष्ट दिशा की ओर अग्रसित होती हुई बाल मन्दिर संस्था अपने 37 वें वर्ष में प्रविष्ट कर चुकी हैं. 1952 का गुरू पूर्णिमा का दिन इसके जन्म का दिन था.

 

नागरिक को विकासोन्मुख करने में बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक की शिक्षा पद्धति ही सहायक हो सकती हैं क्योंकि नवनिर्माण उसमें क्रान्तिकारी परिर्वतन उसके उज्जवल भविष्य के सृजन का आधार हैं यह निर्विवाद सत्य हैं. बाल मन्दिर साढ़े तीन दशक पूरे कर चुका हैं. किसी भी विकासशील संस्था के लिए यह अवधि उसकी प्रगति की पूर्ण झलक नहीं दे सकती, परन्तु संस्था के बढ़ते हुए कदम और गति यह अवश्य स्पष्ट कर देती हैं कि निश्चित रूप से ही प्रयास मंजिल की ओर हैं, तथा भावी योजनाओं को प्रोत्साहन देने वाले हैं.

 

शिक्षा का यह महत्वपूर्ण कार्य सहज रूप में बिना साधन सुविधा, योजना के प्रारम्भ हो गया. यह भी आज विस्मय पैदा कर देता हैं परन्तु दृढ़ विश्वास और लगन के आगे कुछ भी कठिन नहीं हैं, यह अक्षरशः सत्य हैं. ऐसा हुआ श्री गणेश.

 

ऐसे हुआ श्रीगणेश

उस समय के जयपुर शहर से कुछ ही दूर सम्पूर्ण रूप से अन्धकार आच्छादित यह मोती डूंगरी क्षेत्र, मंजिलो ऊंचे बालू रेत के टीले, उतने ही नीचे गड्ढे़, वीरान पड़ा सुनसान सा, जंहा-तंहा टीलो तथा ठिकानों के बगीचों में जीर्ण-शीर्ण झोपड़ियों में पड़े समाज के पिछड़े हुए मजदूर मीणा, गुर्जर, नाई, धोबी व हरिजनों के धूल में लौटते बच्चों ने मुझे आकर्षित किया. जेल जीवन की यातनाओं से विरासत में मिली लम्बी बीमारी के बाद मन एकाकीपन अनुभव करता रहा. सहज भाव से इनके इर्द-गिर्द घूमते-फिरते कुछ बन्धुओं ने भी यह दिशा इंगित की. सोचा इन्ही नन्हे-मुन्नों के साथ अपना नाता जोड़ लेना, इन्हे सुसंस्कार की शिक्षा देना देश का बड़ा काम होगा. याद आ गया सन् 1942 का गांधी जी का सानिध्य और उनका आव्हान् “जितनी इच्छा हो पढ़ लो फिर मेरे पास आ जाना.” यों तो मैनें इस कार्य को बनारस विश्वविद्यालय में लगे एक गांव रामपुर से आरम्भ किया था परन्तु 1948 में बी.ए के बाद उसे छोड़ना पड़ा. तब तक गांधी हमें छोड़ चुके थें. गांधी का आव्हान् याद आ गया. गांधी जी के साबरमती आश्रम व वर्धा आश्रम में रहने से मुझे गांधीजी के जीवन दर्शन को अनायास ही देखने-समझने का अवसर मिला था. उन्होनें एक राजनेता के रूप में भारत की स्वतंत्रता के लिए देशव्यापी संगठन किया, वंहा जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी अनेक परीक्षण व प्रयोग किये. शिक्षा के क्षेत्र में बुनियादी तालीम एक अभिनव प्रयोग था. मेरे मानस पटल पर विचार आ गया. शिक्षा बालक के सम्यक विकास का साधन होना चाहिए.

 

बस, अनौपचारिक रूप से नितान्त साधन विहीन प्रकृति की गोद में उस नीले आसमां के नीचे धूल-धूमरित बच्चों को लेकर श्री गणेश जी को नमन किया. अपनी बहिन के नायब जी के बाग में शिक्षा संस्कार के इस महत्वपूर्ण कार्य को बाल-मन्दिर नाम देकर 7 जुलाई, 1952 में गुरू पूर्णिमा को आरम्भ किया. उन स्मृतियों के मानस पटल पर मंडराने से मन पुलकित हो उठता हैं. उन धूल-धूसरित भोली सूरत वाले बच्चों को नहलाना, खेल खिलाना, कविता सिखाना, मिट्टी की गोलियां, खिलौने बनाना, फूलों से रंग बनाना उन्ही सबके माध्यम से भाषा और गणित का ज्ञान कराया जाने लगा.

 

इसी माध्यम से एक छोटा सा विधान बनाने का औपचारिक कार्य रहा. दो-तीन माह बाद गोविन्दजी तिवारी, तत्कालीन शिक्षा अधिकारी निरीक्षण निमित्त पधारें. साधनहीन होने पर भी शायद मेरी अध्यापन के प्रति तन्मयता देखकर बहुत प्रसन्न हुए. उन्होंने उसको “भगवान की पूजा ” कहा. प्रथम वर्ष में संस्था को मान्यता व राजकीय सहायता भी प्राप्त हो गई. फिर श्री पदमचन्द जी जैन, हैप्पी स्कूल प्रवर्तक, दिल्ली पधारे. उनसे भी प्रेरणा व बल मिला.

 

सत्रान्त तक 60 के लगभग बच्चें थें. यहीं से अभाव अभियोग शुरू हो गया. बाल मन्दिर को यंहा से हटाने की स्थिति आ गई. स्नेहियों व शुभचिंतको ने हाथ बँटाना आरम्भ कर दिया. 1954 में प्रयास से 10 हजार वर्ग गज जमीन सरकार से लीज पर मिल गई, बच्चों की संख्या 175 हुई. नई जमीन पर टाट की छाया में शाला चलने लगी. आर्थिक अनुभव होने पर श्रीमती गायत्री देवी  ने 5000/- रूपये देकर योगदान दिया, तथा श्रम साधना का योगदान दिया यंहा  के बुद्धिजीवी, समाज सेवक वर्ग ने भवन निर्माण कार्य आरम्भ किया. वह दृश्य “जब श्री पूरण चन्द जी जैन, राजरूप जी टांक, श्री रामेश्वरजी विद्यार्थी अपने विद्यार्थियों सहित पत्थर उठाने, मिट्टी ढोने, खोदने में जुट जाते थें,” अविस्मरणीय हैं. इस निर्माण के कार्य में राजस्थान सरकार, राजस्थानी प्रवासी समाज तथा गांधीनिधि आदि से आर्थिक सहयोग मिलता गया और कार्य प्रगति करता गया. सचमुच ही इतने दृढ़ सम्बल मिले बाल-मन्दिर को कि वह आगे बढ़ता गया.

 

वह हमारी बुनियादी और मुख्य प्रवृति हैं. इसी कारण यंहा विस्तृत विवरण अपेक्षित हैं. बालघर, बाल जीवन तथा नागरिक जीवन की निर्माण की प्रथम व महत्वपूर्ण सीढ़ी हैं. इस समय ढाई से छः वर्ष आयु में बालक का मन कोमल एवं मस्तिष्क संवेदनशील होता हैं और पास- पड़ौस व घर के वातावरण से भी बहुत कुछ ग्रहण करके आता हैं. परन्तु बालघर के स्नेहिल एवं साधनायुक्त वातावरण में क्रियात्मक एवं व्यवहारिक कार्यक्रम से वह जो कुछ सीखता हैं वह उसके स्वर्णिम भावी जीवन हेतु उपयोगी होता है. बालघर के शिक्षा साधन उसकी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों के विकास के अत्यन्त सहायक होते है. छोटी उम्र में प्रदत्त ज्ञान शीघ्र ग्रहण होता है. इस आयु में उसकी तीव्र सहनशीलता का लाभ उठाकर उसे पर्याप्त शैक्षणिक वातावरण दिया जाता हैं. इस अवस्था का संचित कोष उसके भावी विकास की आधारशिला हैं.

 

परन्तु बालघर में जिस आयु वर्ग के बालक होते हैं उसमें शिक्षा शास्त्रियों के  प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हुआ हैं कि दबाव से काम कराने, अधिक रोक-टोक करने से बालक उदण्ड हो जाते हैं. अतः बालकों की स्वतंत्रता से अपने साधनों से खेल-खेल में सीखने का अवसर देकर प्रत्येक कार्य मनोवैज्ञानिक ढंग से पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है.

 

हमारे बालघर की कुछ शिक्षिकाएं प्रशिक्षित हैं तथा उनके पास पर्याप्त शिक्षण सामग्री हैं, जिनमें मुख्य रूप से मुक्त क्रिया, इन्द्रिय विकास भाषा, संगीत, गणित और सामान्य ज्ञान के साधन मौजूद हैं. बहुत से साधन शिक्षिकायें ही तैयार करती हैं.

 

बच्चों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ कक्षाओं को बढ़ाने की आवश्यकता भी बढ़ती गई. सन् 1955 में बाल मन्दिर पांचवी कक्षा तक क्रमोन्नत हो गया. सन् 1957-58 में श्री सुखाड़िया जी के सहयोग से बाल मन्दिर को प्राथमिक स्तर तक विशेष विद्यालय के रूप मे मान्यता व सहायता मिल गई.

 

कर्त्तव्यपरायण, धर्मनिष्ठ समर्पित तथा भावनाशील शिक्षक साथियों के खलते हुये अभाव की पूर्ति हेतु 1986 में पुनः पूर्व प्राथमिक महिला शिक्षण प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना की गई जिसमें पूर्व प्राथमिक तथा प्राथमिक कक्षाओं के बालकों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था के लिए श्रम तथा स्वावलम्बन की भावनाओं से युक्त शिक्षिकांए प्रशिक्षित की जा रही हैं.

छात्रावास

महाविद्यालय की बी.एड एवं एस.टी.सी की छात्राओं के लिए श्रम, साधनामय जीवन शिक्षण देने हेतु सन् 1963 में एक सौ छात्राओं के लिए छात्रावास की व्यवस्था भी की गई. एस.टी.सी. के पाठ्यक्रम में सामुदायिक जीवन अनिवार्य होने की आवश्यकता भी छात्रावास से पूरी होती हैं साथ ही रहने वाली छात्राओं को व्यवस्थित दिनचर्या चलाने में सहायक होता हैं. छात्राओं के प्रशिक्षण में छात्रावास के जीवन का अप्रत्यक्ष रूप से बहुत योगदान मिलता है.

 

पाठ्य-सहभागी प्रवृत्तियाँ

पाठ्य सहभागी लगभग सभी प्रवृत्तियाँ प्रथम दशक के प्रारम्भ में ही सुचारू रूप से चलने लगी थी. बाल सुलभ उद्योग, खेलकूद प्रतियोगिताएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम, बालघर, शैक्षणिक भ्रमण श्रम, बागवानी आदि के परिणामस्वरूप बाल मन्दिर, बहुमुखी प्रवृत्तियों के साथ विकासोन्मुख होकर प्रगति करता रहा.

 

समाज की मांग को ध्यान में रखते हुए इस विकास की गति को आगे बढ़ाते हुए सन् 1970 में उच्च प्राथमिक (मिडिल स्कूल ) क्रमोन्नत कर दिया. इसी वर्ष में राज्य ने इसे मान्यता देकर अनुदान देना प्रारम्भ किया. बच्चों की उम्र को ध्यान में रखते हुए उद्योग व सहशैक्षिक प्रवृत्तियों को भी विकासोन्मुख किया गया. बच्चों द्वारा निर्मित वस्तुओं को समाज के लिए सहज, सुलभ करने हेतु मेलों व प्रदर्शनियों का अयोजन किया जाता हैं. संस्था के बढ़ते हुए बौद्धिक स्तर की आवश्यकतानुकूल पुस्तकालय, वाचनालय के कलेवर का भी रूपान्तरण किया गया.

 

जिस बाल मन्दिर की स्थापना नायबजी के बाग की खुली छत पर की गई थी अब उस संस्था के भवन का एक विशेष कैम्पस हैं, जिसमें बाल-घर, उच्च प्राथमिक विद्यालय, उच्च माध्यमिक विद्यालय, महिला प्रशिक्षण कॉलेज, कन्या छात्रावास, रंग-मंच, बाल शैक्षणिक संग्रहालय, कुआ, पानी की टंकी आदि हैं. इस वर्ष बाल घर के पुराने भवन के स्थान पर नये भवन तथा पूर्व प्राथमिक महिला शिक्षण प्रशिक्षण हेतु भवन का निर्माण कराया गया. साथ ही उद्योग शाला, कुछ कक्षा कक्ष तथा बच्चों को धूप बरसात से बचाने हेतु खुले मैदान को ऑडिटोरियम का रूप दिया गया.

 

शुभचिन्तकों व अभिभावकों के आग्रह पर 1976-77 में बाल मन्दिर को उच्च माध्यमिक विद्यालय एवं महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय का रूप दिया गया. हजारो बालिकायें एवं महिलायें आज तक इससे लाभान्वित हो चुकी हैं. यह लाभ समाज को मिलता रहेगा ऐसी ही आशा हैं.

 

हमारा यह प्रयत्न रहा कि बच्चें बड़े होने पर जिस समाज सागर में कूदने को हैं, उसमें तैरना सीखने का अनुभव प्राप्त करें. शिक्षण में सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिकता के विकास हेतु कला एवं व्यवसाय पर भी जोर दिया जाता हैं.  बच्चें स्वावलम्बी होने के साथ-साथ रूचि अनुकूल शिक्षा ग्रहण कर व्यवसाय हाथ में ले सकें, इसका प्रारम्भिक ज्ञान उन्हें हो सके, इस ओर भी ध्यान दिया जाता है. गृह विज्ञान एवं दूसरी कलाओं के सामान्य शिक्षण का भी प्रबन्ध हैं. हमारा यह आग्रह रहता हैं कि सफाई करने से लेकर रोजमर्रा के दूसरे कामों को करने में भार व लज्जा का अनुभव न करें. शिक्षक एवं बच्चें सामान्य रूप से आपस में मिलकर काम करतें हैं.

 

आचार और व्यवहार से ही किसी भी विचार सिद्धान्त व दर्शन को लक्षित किया जा सकता हैं. “बौद्धिक धरातल के कलेवर के उच्च होने पर भी जब तक विचार जीवन की दिनचर्या में दृष्टिगत न हो, सर्वसाधारण के लिए उसका समझना तथा जीवन का अंग बनाना और उसके अनुकूल जीवन को मोड़ देना सम्भवतया कठिन ही नहीं असम्भव होगा. बच्चों में संस्कार की दृष्टि से तथा धर्म जाति आदि के आधार पर वर्ग-भेद का उन्मूलन कर सके, इसी आशा से गाँधी जयन्ती के अवसर पर कैम्प का आयोजन किया जाता हैं जिसमें छोटे-बड़े बच्चें सभी एक सप्ताह तक दिन रात स्कूल में रहते हैं. प्रातः से लेकर देर रात तक का कार्यक्रम निश्चित रहता हैं. उसमें प्रार्थना, प्रभातफेरी, शारीरिक श्रम, विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा भाषण, प्रवचन, गोष्ठी, वाद-विवाद अन्य प्रतियोगिताओं का कार्यक्रम रखा जाता हैं.”

 

यद्यपि मैं गाँधी दर्शन को पढ़ने की प्रबल इच्छा रखते हुए विशेष कारणवश गहन अध्ययन में असमर्थ रही तथापि मुझे गाँधी के प्रत्यक्ष जीवन दर्शन लाभ का सुअवसर प्राप्त हुआ. आज युग प्रवाह में जब गाँधी जीवन की ओर मुड़कर देखती हूं तो लगता हैं भारतीय संस्कृति को धारावाहिक बनाये रखने हेतु गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रमों का आयोजन किया जावे. इस दृष्टि से कैंप के अवसर पर मद्य-निषेध, छुआछूत, उन्मूलन, स्त्री शक्ति जागरण आदि विषय पर गोष्ठियां आयोजित की गई. बच्चों ने सोत्साह व सोल्लास भाग लिया.

 

 

गीता बजाज

संचालिका

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